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लव लेटर – कॉन्टेस्ट

Mere Khayal se
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Love letter, प्रेम पत्र, वेलेंटाइन डे
Love letter, प्रेम पत्र, वेलेंटाइन डे

उसकी उम्र 15 साल रही होगी। एक दिन स्कूल में दोस्तों के साथ मस्ती छानते हुए उसने देखा वो उसकी तरफ देख कर हँसती हुई चली गई। वो हँसी कुछ भी हो सकती थी लेकिन ना जाने क्यों उसके दिल में भारी वजन की तरह बैठ गई। उसका दिल, शरीर, खयाल सब भारी हो गए और वो बहुत देर तक उस हंसी के वातावरण में बैठा सिहरता रहा तो कभी मुस्कुराता रहा।  सब मीठा-मीठा हो गया था, हालांकि उसकी क्लास के पास ही टॉइलेट थी पर उसे जाने कहाँ से खुशबू आ रही थी। एक दिन की वो अनपेक्षित मुस्कुराहट अब रोज़ की अपेक्षा बन गई। उस दिन वो दिख गई थी अब उसे देखने की कोशिशें होने लगीं। आँख-मिचौली का खेल शुरू हो गया, क्या वो भी उसे देखने के लिए व्याकुल रहती है? रहती ही होगी वरना मुसकुराती क्यों? लेकिन फिर दूसरी बार क्यों नहीं मुस्कुराती? लेकिन दिल बड़ा धोखेबाज़ होता है, इस तरह के विरोधी खयाल आते ही उन्हें कमजोर बना देता है और इंसान को उधर ही धकाए लिए चला जाता है जिधर उसे जाना है।  इंसान के अंदर की दुनिया में भी लोकतन्त्र नहीं है, तर्क का अक्सर दमन कर दिया जाता है। इसी कशमकश में वो उस पचड़े में गहरा फँसता ही गया जिसे इश्क़ कहते हैं। जो बात स्कूल के एक पल में हुई थी वो दिन-रात की चिंता बन गई।स्कूल, घर सब उसी पे कुर्बान हो गया। स्कूल में उसी का इंतज़ार और घर से बार-बार भाग कर उसके घर के फेरे यानि फिर वही इंतज़ार। लेकिन कमबख्त वो एक पुख्ता सबूत अब तक हाथ नहीं लगा था जो ये कहता की हाँ वो भी तुझे प्यार करती है। पता नहीं उसकी नज़र पड़ जाती थी या वो देखती थी पर ये धूर्त दिल हमेशा ये यकीन दिलाने पे तुला रहता कि “वो देख उसने तुझे देखा, मतलब वो तुझे चाहती है पगले” लेकिन दिमाग हर वक़्त अपनी टांग फँसा देता है और बात फिर हवा में झूलती रह जाती है। सालों, दोनों में से कोई तो एक पक्की बात बताओ। अब ये पक्की बात उससे भी पूछी जा सकती है लेकिन ये सोचते ही हाथ-पैरों में बर्फ जम जाती है। एक तो किसी लड़की से ही कभी बात नहीं की और फिर ऐसी बात? इस झंझट के विस्तार में एक और किरदार तो छूट ही गया – वो प्राणी जिसे ‘पक्का दोस्त’ कहते हैं। तो इस ‘पक्के दोस्त’ को बताया गया कि ऐसा-ऐसा है और वो भी प्यार करती है क्योंकि ये नहीं कह सकते कि पता नहीं करती है या नहीं, इज्ज़त का सवाल है; फिर दोस्त नालायक ही होते हैं, राय बाद में देगा हँसेगा पहले।  तो दोस्त से घंटों बातें चलने लगीं, आज ये हुआ, आज वो हुआ, उसने ऐसे देखा, वैसे देखा। दोस्त का अपना भी एक लफड़ा था, वो भी सुनना पड़ता था लेकिन अब लगता है कि सुनने में तो दोनों में से कोई भी इंटेरेस्टेड नहीं था वो तो इसलिए सुनता था कि अगली बारी उसके बोलने की है और सामने वाला भी उसे सुने। इस ले-दे में समय बीत रहा था, मामला अनिश्चित लटका था और दिल पचड़े में रोज़ कुछ और गहरे उतार जाता था। अब तो दिन-रात दिल में दर्द बना रहने लगा। कुछ करना चाहिए का सवाल आकार रोज़ ताकने लगा। लेकिन हिम्मत उसे देखकर हमेशा दूसरी तरफ उंगली दिखा कर कहती ‘अरे, वो देख वो क्या है’ और सवाल के टल जाने तक उधर ही बहलाये रखती। अब तो असहनीय हो रहा था सवाल, दोस्त से पूछा गया और उसने संत के से निर्लिप्त भाव से कहा कि बात करो उससे और क्या? बात करने के लिए टनों हिम्मत चाहिए जो उसकी बॉडी में थी नहीं तो तय हुआ कि लेटर दिया जाएगा। लेटर लिखने पर काम शुरू हुआ, बड़ी मुश्किल से जनरल स्टोर से एक खूबसूरत सा लेटर पैड खरीदा गया दुकानदार की भेदभरी नज़रों और मुस्कुराहट के बावजूद और एक दूसरे दोस्त नामक प्राणी के निर्माणाधीन मकान पर रोज़ जाकर कागज़ी कसरत होने लगी।

काफी दिनों के विचार-मंथन के बाद खत तैयार हुआ। जब तक ये चल रहा था, दिल भी शांत था कि चलो कुछ कर रहे हैं, उस सवाल के अब ना आने से हिम्मत भी सुकून से थी। लेकिन लेटर पूरा होते ही हिम्मत पर फिर आफत का पहाड़ टूटा। बात करने में हिम्मत चाहिए लेकिन लेटर भी तो यूं ही नहीं दिया जा सकता? एक लेटर देना, और सही मौके पर देना जबकि कोई देखता न हो। मौके की तलाश शुरू हुई और सवाल को इस तरह बहलाना शुरू हुआ कि मौका नहीं मिल रहा है। दोस्त कभी कोई मौका बताता तो हिम्मत कहीं से भी कोई रुकावट ढूंढ कर पेश कर देती। दोस्त भी हताश हो चला और अब सलाह देने को छोड़ ताने देने का प्रोफ़ाइल संभाल लिया। दिल मे फिर बड़ा दर्द रहने लगा। ‘उसे’ भी अंदाज़ तो हो गया था कि ये आदमी कुछ करने पर आमादा है पर कमबख्त कोई ठोस सिग्नल नहीं देती थी। अरे कभी खुद ही आकर पूछ ले कि कुछ कहना चाहते हो? या फिर आकर खुद ही कह दे कि हाँ मुझे इश्क़ है तो क्या जाये उसका? ये लड़कियां क्यों इंतज़ार ही करती रहती हैं? सचमुच लड़कियों को लड़कों की बराबरी पर लाना ज़रूरी है फिर दोनों में से कोई भी कह सकता है कि मुझे इश्क़ है। सिर्फ ख़यालों और योजनाओं में ही दिन बीत रहे थे और कुछ हो-हवा नहीं रहा था। आखिर हिम्मत थोड़ी बढ़ी और 2-3 बार कदम बढ़ाए लेटर देने के लिए लेकिन हर बार कोई न कोई रुकावट तो नज़र आ ही जाती थी। आखिर एक दिन भरे बाज़ार में दोस्त ने कह दिया – “तुमसे कुछ नहीं हो सकता, या तो आज दे दो वरना छोड़ दो”। रोज़-रोज़ की तकलीफ से वो भी आजिज़ आ गया था सो हिम्मत को जबर्दस्ती बना कर कदम बढ़ाए। कदम तो बढ़े लेकिन हलक से आवाज़ ना निकले कि उसे रोक ले। पीछे-पीछे चलने लगे, यहाँ तक कि उसका घर आ गया, अब तो हद हो गई…दोस्त भी नालायक पीछे से देख रहा है, बिना लेटर दिये वापस भी नहीं जा सकते। जब वो घर के दरवाज़े तक पहुँचने लगी तब आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ कि अगर वो घर में चली गई तो आज फिर काम रह जाएगा। और ऐन उस वक़्त जब वो अपने घर के दरवाज़े पर पहुंची इनकी हिम्मत ने आखिर इनकी बात मानी और हलक से आवाज़ निकल गई। तालियाँ, क्या जबर्दस्त मौके पर हिम्मत, हलक वगैरह सबने काम किया। कहाँ तो सुनसान सड़क पर भी रुकावट ढूंढ लेते थे और आज घर में घुसकर मारा है (या मरवाया है)। सो साहब आवाज़ देकर लेटर उसकी तरफ फेंक दिया और लेटर फेंक कर जो बेतहाशा दौड़ लगाई कि अगर वहाँ ओलिम्पिक हो रहा होता तो गोल्ड मेडल मिल जाता। गली के दूसरे कोने पर दोस्त खड़ा था उसने शाबासी के साथ पीठ थपथपाई और पलट कर जब दोनों ने देखा तो चारों तरफ अंधेरा हो गया। लेटर उसकी बहन के हाथ लग चुका था और वो उसका रसास्वादन कर रही थी।एक और किरदार की तस्वीर उभरती है, लड़की का बाप तो कुछ नहीं पर उसका खुद का बाप जल्लाद है, पैदा होने से आज तक हुई सारी धुलाइयाँ उसके ज़हन में घूमने लगीं। अब तो कोई उपाय नहीं बात घर तक पहुंचेगी और…उसके टुकड़े-टुकड़े होना तय है, बाप जान से मार देगा। परेशानी में उसने दोस्त को कोसा, साले तूने मरवा दिया तो वो उल्टा चढ़ बैठा कि एक तो इनका साथ दो और फिर ये बातें सुनो। बहरहाल, उपाय सोचा जाने लगा और ये तय हुआ कि कल सुबह पहली गाड़ी से चाचा के घर चला जाया जाये जो दूसरे शहर में रहते हैं। लेकिन सुबह तक बचे तब तो…। दोस्त थोड़ी देर माथा-पच्ची करने के बाद घर चला गया। वो तो चैन से सोएगा, मुसीबत उस पर थोड़ी आई है। कहाँ गया वो साला इश्क़ जो वातावरण को बड़ा मीठा-मीठा बता रहा था, अब तो पूरी दुनिया ही भयानक हो गई। आते-जाते लोगों कि नज़रों में वो ये पढ़ने की कोशिश करने लगा कि बच्चू पकड़ा गया तुम्हारा लव-लेटर ठहरो अब ठुकाई होगी तुम्हारी। डर के मारे आँसू निकल आए, जाने कौन सी घड़ी में वो हँसी थी और हँसी तो ठीक, उसने खुद उसे सीरीयसली क्यों लिया? 6-8 महीने से लगे हैं और आखिर में मर गए। उसे दादी याद आई, सोचा उन्हीं के पास जाकर बैठा जाये कोई कुछ नहीं कहेगा। दादी ने प्यार से बैठाया लेकिन उसका तो दिमाग स्थिर ही नहीं था, दादी भी थोड़ी देर में अपने काम में लग गई। अब दादी से तो ये कहने से रहा कि लव-लेटर देकर आ रहा हूँ और पकड़ा गया हूँ, क्या पता वही पिताजी को बुला ले और सामने ही ठुकाई करवा दे? थोड़ी देर में उसे दुनिया की निस्सारता का पता चलने लगा जो अखंड-ज्योति टाइप पत्रिका में कभी पढ़ा था लेकिन समझ में कभी नहीं आया था। शाम तक इधर-उधर भटकने के बाद रात को तो घर जाना ज़रूरी ही था सो भारी कदमों से चले। पहले दरवाज़े से झांक कर माहौल भाँपने की कोशिश की। सब सामान्य दिख रहा था, कहीं कोई हलचल नहीं, क्या हुआ? लड़की का बाप अब तक आया नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने बहन को मना लिया हो कि मैं उससे प्यार करती हूँ और दोनों बहनें एक-दूसरे की राज़दार हो गई हो? कमबख्त दिल ऐसे मौके पर भी फालतू बातें ही सोचता रहता है, यहाँ जान पर बनी है और इन्हें अब भी वही सूझ रहा है, दिल सामने होता तो 2 कनपटी पर रखता। झाँकने का काम चल ही रहा था और पीछे से बहन आ गई और उसने ज़ोर से पूछ लिया “अरे, यहाँ क्या कर रहा है”, रूह तक कांप गई लेकिन फिर समझ में आया कि ये ऐसे बात कर रही है मतलब इसे कुछ नहीं पता। थोड़ी हिम्मत बँधी, वही हिम्मत जो आज कचरे करवा चुकी है। पूछा “पापा आ गए?” जवाब मिला “नहीं”, हिम्मत और बढ़ गई। अंदर चले गए, माँ ने पूछा “कहाँ था दिन भर?” और अब तो रोने-रोने को हो गया दिल, मतलब अब तक कुछ नहीं हुआ है…हे भगवान, तू है, तू है…आज पता चल गया। ताबड़तोड़ चाचा के घर जाने का प्लान बनाया गया, बहन को उसमे शामिल किया गया और तैयारी शुरू हो गई। पापा के घर आने तक पट्ठे खा-पीकर बिस्तर में दुबक चुके थे। सुबह का बेसब्री से इंतज़ार था। रोज़ तो सोते ही सुबह हो जाती है और उठना पड़ता है पर आज तो बड़ी मुश्किल से आई। आदमी का समय खराब हो तो सब मज़े लेते हैं। सुबह उठते ही फटाफट कपड़ों पर इस्त्री होने लगी, पापा दाढ़ी बना रहे थे। सब कुछ सही जा रहा था। आधे घंटे की बात है और, फिर छूssss…शर्ट पर हो गई थी और अब पैंट पर इस्त्री हो ही रही थी कि ज़ोर से आवाज़ आई “अरे वर्मा जी”। एक पल में पैर के तलवे गरम हो गए…ये लड़की के बाप की आवाज़ है। साली माना कर देती, लेटर बाप को देने की क्या ज़रूरत थी। 1 पल में 1000 बातें दिमाग में आकर चली गई और निकट भविष्य भी साफ-साफ दिख गया कि अब दरबार में पेशी होगी, सवाल किए जाएँगे जिनके जवाब ज़रूरी नहीं हैं और फिर लड़की के बाप को खुश करने के लिए उसके सामने ही झापड़ों और घूंसों से पूजा होगी। जिस एक पल में ये भविष्य देखा जा रहा था उसी एक पल में शरीर के खतरा बताने वाले सिस्टम ने मुस्तैदी से अपना काम किया और पैंट और इस्त्री को वहीं छोड़ बेटे भाग खड़े हुए, जिस हाल में थे उसी हाल में…। दिन भर ठोकरें खाते रहे भूखे-प्यासे और अताउल्ला खाँ के गाने ज़हन में बजते रहे। हर आता-जाता आदमी यूं लगता की पिताजी ने ढूँढने भेजा है। इश्क़ में नाकामी की चोट और बाप की दहशत में उसकी हवा खिसकी हुई थी। रोना भी आता था पर आने-जाने वाले देखते थे तो रो भी नहीं सकते। हाँ, उसकी रोनी सूरत ज़रूर लोगों को दिख जाती है पर उससे क्या? इस दुनिया में रोनी सूरत वाला आदमी ही तो सामान्य माना जाता है कभी कोई खूब हंसने लगे तो लोगों की आँखों में खटकने लगता है। दिन कट गया पर रात को रोका तो नहीं जा सकता ना सो वो भी टाइम पे आ गई। अब तो घर जाना ही था, छुपते-छुपाते घर पहुंचे, पिताजी अब तक आए नही थे। अंदर गए तो माँ ने खरी-खोटी सुनाई और बाप का एक बार फिर डर दिखाया जो वो उसके पैदा होने के दिन से ही दिखाती आई थी और उसी वजह से बाप, बाप नहीं राक्षस की तरह लगने लगा था। ख़ैर, माँ की बातें तो ठीक है सुनी जा सकती हैं, जल्दी से उसने खाना खाया और बिस्तर में घुस गया, अब सोने के बाद बाप नींद से उठाकर मारे ऐसी उम्मीद तो नहीं थी और ऐसा नहीं हुआ। अब ज़िंदगी लुका-छिपी का खेल बन गई, हर काम की टाइमिंग ऐसी रखना कि कहीं पिताजी से आमना-सामना ना हो जाये, पिताजी की दिनचर्या बंधी हुई थी सो उसने  उस हिसाब से खुद को एडजस्ट कर लिया…लेकिन बकरे की अम्मा कब तक ख़ैर मनाती? एक दिन यूं हुआ कि वो घर में था और पिताजी बेवक्त आ धमके। वो नज़र बचा कर भाग ही रहा था की पिताजी की गरजदार आवाज़ सुनाई दी, मौत का बुलावा आ गया था, अलविदा दोस्तों, अलविदा ऐ मोहब्बत…। पिताजी के कमरे में बुलाया गया पर जैसी उम्मीद थी वैसा कुछ नहीं हुआ। अप्रत्याशित रूप से पिताजी ने हाथों की बजाय मुंह से बात शुरू की, उनका लैक्चर एक बार शुरू हुआ तो ऐसा लगने लगा कि ये अनंत काल तक चलेगा। एक तो तनाव ऊपर से ये अचरज कि अब तक मार क्यों नहीं पड़ी और उसके ऊपर हाँ में हाँ मिलाने की मजबूरी। करीब एक घंटे तक चला वो भाषण एक युग की तरह लगा। अब समझ में आया कि समय सापेक्ष होता है, उसकी लंबाई घंटों या मिनटों से नहीं नापी जा सकती, उसके अनुभव से नापी जा सकती है। महाभारत में भगवान कृष्ण ने जो गीता कही वो भी शायद युद्ध के बीच थोड़े समय में ही कही गई होगी लेकिन हमारे अनुभव और अर्जुन के अनुभव में अंतर की वजह से ही हमें वो बहुत लंबी लगती है। बहरहाल, हर चीज़ की तरह उस लैक्चर का भी अंत हुआ और पिताजी चले गए। जीवन का एक बुरा अध्याय बीत गया। 1 घंटे के भाषण का उतारा 2 घंटे के आराम से हुआ। एक लव लेटर ने ने ऐसी फजीहत करा दी, लव लेटर देने के पहले और बाद दोनों ही वक़्त फजीहतें ही होती रही। उस दिन उसने कसम खाई कि आइंदा ज़िंदगी में कभी लव-लेटर नहीं लिखेगा….

अब सीधे जाकर बात करेगा… J

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