कईं बार यूँ हुआ है के
बेतरतीब से लफ़्ज़ों को समेट कर
तुम्हारे पहलू में रख दिया है मैंने
और पाई है
एक मुक़म्मल नज़्म
काश
यूँ भी हो
के किसी दिन
ख़ुद को समेट कर रख दूँ
तुम्हारे पहलू में…
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